ऐ काश की फिर लौटा पाते , जो बीत गया है वो जीवन
कितना प्यारा कितना सुंदर , कितना न्यारा था वो बचपन
वो गलियाँ और वो चौराहा , चलना पगडंडी मेड़ों पे
अमरुद लीची या आम लदे , वो चढना उतरना पेड़ों पे
वो विद्यालय जिसमें हमने , का-का की-की पढना सिखा
वो इंक दवात की स्याही से , जीवन में रंग भरना सिखा
कभी खेल-खेल के चक्कर में , अपनी कुछ चीजे खो देना
खुद से ही गलती करना , और मार के डर से रो देना
गिल्ली-डंडे और कंचों में , खाने की सुध बुध ना रहना
सुनकर भी अनसुनी करना , अपनी अम्मा का हर कहना
वो हार पे अपनी चिल्लाना , और जीत पे अपनी इतराना
इक-इक दावों पे दम भरना , हर एक चाल पे मुस्काना
लेते ही किताबें हाथों में , निंदिया रानी का आ जाना
घंटों तक बाबू जी का फिर , वो ज्ञान की महिमा समझाना
लोभ में पड़के मिठाई की , अपने घर में चोरी करना
पूछे जाने पर चुप रहना , और गालों पर थप्पड़ का पड़ना
आवाज दोस्तों की सुनकर , वो खड़ा कान का हो जाना
घर में चुपके-चुपके चलना , फिर दौड़ गली में खो जाना
छुपके दादा के चश्मे से , वो देखना दुनिया बड़ी-बड़ी
दिन त्योहारों पकवानों का , और भूख का लगना घड़ी-घड़ी
आना घर पे मेहमानों का , कुछ पाने को जी ललचाना
फिर छोड़ के नटखटपन अपना , भोला-भाला सा बन जाना
वो हाथ पकड़ के भैया का , हर रोज बजारों में जाना
हर चीज देखकर जिद करना , और बात पे अपनी अड़ जाना
चढके चाचा के कन्धों पे , उनकी मुछों को सहलाना
कह-कह के कहानी परियों की , दीदी का दिल को बहलाना
वो रेत में पांव घुसाकर के , इक सुंदर महल बना लेना
इक नाव बनाना बारिश में , और मार के डंडा चला लेना
घनघोर घटा के छाने पर , वो होके मगन नांचा करना
तूफां में करना कूद -फांद , और आँख में मिटटी का भरना
कच्चे अमिया का खट्टापन , और पानी मुंह में आ जाना
फिरना दिन-दिन भर बागों में , और विद्यालय में ना जाना
वो कान पकड़ मुर्गा बनना , घंटों उठक - बैठक करना
पलभर करना अफसोस मगर , घंटों तक आंसू का झरना
संगी - साथी और हमजोली , रगडा - झगडा गुस्सा अनबन
खट्टी - मिट्ठी बातों वाली , कई यादे छोड़ गया बचपन
कितना प्यारा कितना सुंदर , कितना न्यारा था वो बचपन
वो गलियाँ और वो चौराहा , चलना पगडंडी मेड़ों पे
अमरुद लीची या आम लदे , वो चढना उतरना पेड़ों पे
वो विद्यालय जिसमें हमने , का-का की-की पढना सिखा
वो इंक दवात की स्याही से , जीवन में रंग भरना सिखा
कभी खेल-खेल के चक्कर में , अपनी कुछ चीजे खो देना
खुद से ही गलती करना , और मार के डर से रो देना
गिल्ली-डंडे और कंचों में , खाने की सुध बुध ना रहना
सुनकर भी अनसुनी करना , अपनी अम्मा का हर कहना
वो हार पे अपनी चिल्लाना , और जीत पे अपनी इतराना
इक-इक दावों पे दम भरना , हर एक चाल पे मुस्काना
लेते ही किताबें हाथों में , निंदिया रानी का आ जाना
घंटों तक बाबू जी का फिर , वो ज्ञान की महिमा समझाना
लोभ में पड़के मिठाई की , अपने घर में चोरी करना
पूछे जाने पर चुप रहना , और गालों पर थप्पड़ का पड़ना
आवाज दोस्तों की सुनकर , वो खड़ा कान का हो जाना
घर में चुपके-चुपके चलना , फिर दौड़ गली में खो जाना
छुपके दादा के चश्मे से , वो देखना दुनिया बड़ी-बड़ी
दिन त्योहारों पकवानों का , और भूख का लगना घड़ी-घड़ी
आना घर पे मेहमानों का , कुछ पाने को जी ललचाना
फिर छोड़ के नटखटपन अपना , भोला-भाला सा बन जाना
वो हाथ पकड़ के भैया का , हर रोज बजारों में जाना
हर चीज देखकर जिद करना , और बात पे अपनी अड़ जाना
चढके चाचा के कन्धों पे , उनकी मुछों को सहलाना
कह-कह के कहानी परियों की , दीदी का दिल को बहलाना
वो रेत में पांव घुसाकर के , इक सुंदर महल बना लेना
इक नाव बनाना बारिश में , और मार के डंडा चला लेना
घनघोर घटा के छाने पर , वो होके मगन नांचा करना
तूफां में करना कूद -फांद , और आँख में मिटटी का भरना
कच्चे अमिया का खट्टापन , और पानी मुंह में आ जाना
फिरना दिन-दिन भर बागों में , और विद्यालय में ना जाना
वो कान पकड़ मुर्गा बनना , घंटों उठक - बैठक करना
पलभर करना अफसोस मगर , घंटों तक आंसू का झरना
संगी - साथी और हमजोली , रगडा - झगडा गुस्सा अनबन
खट्टी - मिट्ठी बातों वाली , कई यादे छोड़ गया बचपन
3 comments:
its a beautiful poem keep it up
It seems that this poem is written on my childhood. excellent poem..
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